जनसंस्कृतियाँ और साम्राज्यवादी संस्कृति – पहला भाग
शिवराम
शिवराम
( शिवराम का भारतीय समाज के संदर्भों में जनसंस्कृतियों की विकास-अवस्थाओं और साम्राज्यवादी अपसंस्कृतिकरण पर लिखा गया यह महत्त्वपूर्ण आलेख इसकी लंबाई को देखते हुए यहां चार भागों में प्रस्तुत किया जा रहा है. प्रस्तुत है पहला भाग. )
प्राचीन जन-समाज, जिनके अपने-अपने जनपद भी हुआ करते थे परस्पर युद्धरत भी होते थे और संघबद्ध भी होते थे। युद्ध भी और संघबद्धता भी दो या अधिक जनपदों के मध्य सांस्कृतिक अन्तःक्रिया की स्थिति उत्पन्न करते थे। लेकिन दोनों स्थितियों में मूलभूत अंतर होता था। युद्धजनित स्थिति में ‘विजेता’ जन समाज की, ‘पराजित’ जन समाज के युद्धबन्दियों के साथ अन्तःक्रिया होती थी। विजेता जन समाज द्वारा युद्धबंदी अपने में मिला तो लिए जाते थे, लेकिन विजेता जन समाज यहां प्रभुतापूर्ण प्रभावशाली स्थिति में होता था और पराजित युद्धबंदी लघुतापूर्ण उपकृत स्थिति में होते थे।
ये ‘जन समाज’ आदिम साम्यवादी समाज थे जिनमें किसी भी प्रकार के भेदभाव अभी उत्पन्न नहीं हुए थे। दूसरे जनपद के युद्धबन्दी थोड़े ही समय में घुलमिल जाते थे। इनके बीच सांस्कृतिक आदान-प्रदान भी होता था। युद्धबंदियों के पास अपने जनपद से लाया हुआ जो महत्वपूर्ण ज्ञान, कौशल और मूल्यगत-व्यवहारगत बातें होती थीं, उन्हें विजेता जनपद के लोगों द्वारा सहज रूप में ग्रहण कर लिया जाता था। पराजित युद्धबंदियों को तो विजेता जनपद की संस्कृति में ढलना ही होता था। जबकि जनपदों की संघबद्धता की स्थिति में संघबद्ध हुए जनपद लगभग समान स्तर पर होते थे और उनके बीच होने वाली अंतःक्रिया हर प्रकार के दबाव से मुक्त होती थी। दबाव मुक्त अवस्था में होने वाले इस मेल-जोल में उनकी संस्कृतियों का श्रेष्ठ ही पुष्पित-पल्लवित होता था और निकृष्ट या क्षीण और हीन मुरझाता जाता था। दोनों संस्कृतियां मिल कर एक नयी समृद्ध संस्कृति का निर्माण करती थीं। जब कई जनपद संघबद्ध होते थे तो बड़े और अधिक समृद्ध जनपद की नेतृत्वकारी स्थिति होती थी।
यह जनसंस्कृतियों का प्रारम्भिक पारस्परिक व्यवहार था, जो जनतांत्रिक प्रकार का भी था और साम्राज्यवादी प्रकार का भी। लेकिन साम्राज्यवादी प्रकार भी बाद के साम्राज्यवादी व्यवहारों जैसा वर्चस्ववादी नहीं था।
फ़्रेडरिक एंगेल्स इस विषय में अमरीका की आदिवासी जातियों के बारे में लिखते हुए बताते हैं कि - ‘‘जनसंख्या का घनत्व बढ़ने से यह आवश्यकता उत्पन्न हुई कि आंतरिक रूप से और बाहरी दुनिया के विरूद्ध संघबद्ध हुआ जाय। हर जगह सम्बन्धित जातियों का संघ आवश्यक हुआ और शीघ्र ही उनका परस्पर घुल-मिलकर एक होना भी आवश्यक हो गया। तब कबीलों के विभिन्न प्रदेश ‘जनपद’, जनता के एक ही विशाल प्रदेश ‘महाजनपद’ में घुलमिल कर एक हो गए।’’ साथ ही एंगेल्स यह भी बताते हैं कि - ‘‘प्राचीन जनों का एकीकरण समानता और भाईचारे के आधार पर सदा जनतांत्रिक ढंग से नहीं होता। शक्तिशाली जन दूसरों पर विजय प्राप्त करके भी यह एकीकरण की प्रक्रिया पूरी करते थे।’’
दरअसल, प्राचीन ‘जन-समाज’ कोई स्थिर जन समाज नहीं होते थे। प्राचीन कबीलाई ‘जन’ जो रक्तसम्बन्धों पर आधारित थे, वे रक्त सम्बन्धों पर आधारित होते हुए भी क्रमशः शुद्ध रक्त वाले नहीं रह गये थे। अजनबियों और युद्धबंदियों को सम्मिलित करने और दूसरे ‘जन-समाजों’ के साथ संघबद्ध होते रहने की प्रक्रिया में वे मिश्रित नस्लों वाले होते गये। इस दौरान दस्तकारी और कृषि के विकास के साथ-साथ व्यक्तिगत स्वामित्व और व्यक्तिगत सम्पत्ति का आविर्भाव भी होने लगा। कार्य विभाजन आवश्यक हो गया और वर्णव्यवस्था अस्तित्व में आई। आदिम साम्यवादी ‘जन-समाज’ सामंती समाज में बदलने लगे। जन समाजों का विघटन होने लगा और महाजनपदों का गठन हुआ।
यद्यपि प्राचीन जन समाजों का यह विघटन सर्वत्र न तो एक साथ हुआ और न ही पूर्णरूपेण हुआ। नए सामंती जन-पद, प्राचीन जन-समाजों के अनेक अवशेषों के साथ अस्तित्वमान हुए। बल्कि भारत की भौगोलिक राजनैतिक स्थितियों ने विकास के विभिन्न स्तरों के जन-समाजों को भी सामान्य विकासशील उथल-पुथल से दूर रहकर अस्तित्वमान रहने की सुविधा भी प्रदान की। इन नये जनपदों के निर्माण की प्रक्रिया को देखें तो पाते हैं कि वहां भी समर्थ-शक्तिशाली ‘जन’ और दूसरे ‘जनों’ के बीच साम्राज्यवादी व्यवहार भी था। यह सामंती साम्राज्यवादी व्यवहार था। यह प्रक्रिया उत्तर भारत में चंद्रगुप्त मौर्य से लेकर समुद्रगुप्त तक के साम्राज्यों के स्थापना काल में पूरी हो गई थी। डॉ. के.पी. जायसवाल ( हिन्दु पोलिटी, बंगलोर, 1943 ) के अनुसार ‘मौर्य साम्राज्यवाद’ और ‘हिन्दू यूनानी क्षत्रपों’ ने अधिकांश प्राचीन गणराज्यों यानी ‘जन-समाजों’ का विनाश किया।
यहां दो बातों पर ध्यान दिया जाना चाहिए। एक तो यह कि जब सामंती साम्राज्यवाद ने अपने समय में प्राचीन ‘जन-समाजों’ को नए सामंती साम्राज्य में एकीकृत किया तो सामंती साम्राज्यवादी संस्कृति ने प्राचीन जनपदों की संस्कृति के साथ कैसा व्यवहार किया और साथ ही यह भी देखना चाहिए कि पूंजीवादी साम्राज्यवाद आज विभिन्न राष्ट्रीय राज्यों की जातीय और जनपदीय संस्कृतियों से कैसा व्यवहार कर रहा है। इन दोनों साम्राज्यवादी व्यवहारों में क्या भेद हैं? ये भेद मात्रात्मक ही हैं या गुणात्मक भी। दूसरे यह कि जैसे प्राचीन गण समाजों के विघटन और महाजनपदों तथा लघुजातियों के निर्माण की प्रक्रिया पूरी नहीं हुई और सामंती साम्राज्यों के समय में भी ‘जन’ समाजों के न केवल अनेक अवशेष अस्तित्वमान रहे बल्कि अनेक जन जातियां भी अस्तित्वमान रहीं, वैसे ही आधुनिक समय में महाजनपदों और लघु जातीयताओं के एकीकरण और राष्ट्रीय जातीयताओं के निर्माण की प्रक्रिया भी यहां पूरी नहीं हुई। अनेक लघु जातीयताएं, जनपद और जन-जातियां अपने विशिष्ट स्वरूप को आज भी बनाए रखे हुए हैं।
हम आज भी अनेक अंचलों को जन-पद कहते हैं। यद्यपि अपनी जनपदीय अवस्था की अनेक विशिष्टताओं से युक्त होते हुए भी इन जनपदों ने महाजनपदों, लघु जातियों और जातीय तथा राष्ट्रीय बहुजातीय पुनर्गठनों की लम्बी राजनैतिक-सामाजिक और सांस्कृतिक यात्रा की है। ब्रज, बुंदेलखण्ड, मिथला, भोजपुर आदि ऐसे ही अंचल है। छत्तीसगढ़, झारखण्ड और राजस्थान एवं अन्य प्रदेशों में भी अनेक जनजातियां प्राचीन सांस्कृतिक-सामाजिक मूल्यों के साथ अब भी अस्तित्वमान है। इसी प्रकार विभिन्न राष्ट्रीय जातीयताएं संघबद्ध तो हुई हैं लेकिन एक आधुनिक बहुराष्ट्रीय जातीयता के रूप में घुल मिल जाने की प्रक्रिया अभी पूरी नहीं हुई है।
भारत में हिन्दी जातीय एकीकरण का काम अभी तक पूरा नहीं हुआ है। बल्कि उल्टी प्रक्रिया भी दिखाई देने लगती है। जनपदीय-आंचलिक भाषा-बोलियों की मान्यता और अलग राज्य के रूप में राजनैतिक इकाई के रूप में गठन की मांग के लिए जो आंदोलन दिखाई पड़ते हैं वे इस बात के द्योतक हैं कि जनपदों के जातीय सांस्कृतिक विकास में उल्लेखनीय अधूरापन रह गया है। वे रच-पच कर एकमेक नहीं हो पाए। साथ ही इस बात के द्योतक भी हैं कि आंचलिक और उपजातीय संस्कृतियां देश के भीतर से भी साम्राज्यवादी किस्म के राजनैतिक भेदभाव और सांस्कृतिक उपेक्षा महसूस कर रही हैं। वे इस बात के भी द्योतक हैं कि अब पूंजीवाद आधुनिक जातीयताओं के निर्माण की जनतांत्रिक प्रक्रिया को बल प्रदान करने के बजाय उनके विखण्डन की अवसरवादी राजनीति को प्रश्रय दे रहा है।
इन जनपदों में स्वतंत्र पहचान की प्रवृत्ति क्यों रही? क्या यह सच नहीं है कि उनकी अपनी भाषा साहित्य और संस्कृति एक समृद्ध जातीय इकाई के रूप में विकसित हुई, और जनपदीय सांस्कृतिक इकाई के बजाय वे जातीय इकाई की तरह व्यवहार करती रहीं?
भारतीय बहुराष्ट्रीय राज्य की संरचना की विशिष्टताओं को भली-भांति समझा जाना चाहिए। तमिल जातीयता का गठन 1310 ई. से पहले ही हो गया था। 1669 में शिवाजी ने मराठा राज्य स्थापित किया। कार्ल माक्र्स ने ‘नोट्स आन इण्डियन हिस्ट्री’ में कहा ‘‘इस प्रकार मराठे एक जाति बने जिन पर स्वतंत्र राजा राज्य करता था।’’ दक्षिण की अन्य जातीयताओं और बंगाली जातीयताओं के गठन की प्रक्रिया भी काफी पहले पूरी हो गई लेकिन कुछ अन्य एवं हिन्दी भाषा-भाषी प्रदेशों के बीच जातीयता के निर्माण की प्रक्रिया अभी भी अधूरी है। जबकि सामंती साम्राज्यवाद के काल में ही लघु जातीयताओं के सम्मिलन और बड़े प्रदेशों के गठन की प्रक्रिया पूरी हो जानी चाहिए थी। जबकि उत्तर भारत की लघु जातीयताओं वाले जनपदों में ऐसी अनेक आधारभूत समानताएं हैं कि उनका महाप्रदेश के रूप में संगठित होना स्वाभाविक था। मुगल शासन के अंतर्गत यह प्रक्रिया प्रारम्भ हुई। लगभग पूरा उत्तर भारत एक हुकूमत के अधीन रहा। वैसे तुर्कों के समय में भी उत्तर भारत काफी केन्द्रबद्ध हो गया था। यह इतिहास की जरूरत थी। एक केन्द्रीकृत राज्यसत्ता इस क्षेत्र के विकास की अनिवार्यता थी। डॉ. रामविलास शर्मा ‘‘भाषा और समाज’’ में उल्लेख करते हैं कि - ‘‘राजपूत सामंतों की यह बुनियादी कमजोरी थी कि वे न तो राजस्थान को एक सुकेन्द्रित शासन व्यवस्था में ला सके न समूचे उत्तर भारत ( या हिन्दी भाषी प्रदेश ) का एक राज्य कायम कर सके। राजस्थान या हिन्दी भाषी प्रदेश में वे एक संयुक्त जातीय राज्य कायम नहीं कर सके।’’
जबकि यह उनका ऐतिहासिक दायित्व था। इस दायित्व को विदेशी हमलावर राजनैतिक शक्तियों ने पूरा किया। संभवतः इस अनिवार्यता के लिए बनी रिक्तता ने ही उन्हें यह अवसर दिया। ‘‘जागीरदारों और सामंतों के स्वतंत्र राज्यों का अलगाव खत्म किये बिना व्यापार की उन्नति और उसका प्रचार सम्भव नहीं था।’’ ( डॉ. रामविलास शर्मा ) महाजनी पूंजीवाद की विकासशीलता के लिए सुकेन्द्रित राज्य व्यवस्था आवश्यक थी।
फिर यह सवाल उठता है कि बावजूद मुगलों के नेतृत्व में संकेन्द्रित राज्य व्यवस्था के हिन्दी महाजातीयता का गठन पूर्णता को क्यों नहीं प्राप्त कर सका? ब्रिटिश साम्राज्य के आविर्भाव और मुगल सत्ता के कमजोर होते ही वह लघुजातीयताओं वाले पुराने सामंती राज्यों में क्यों बंट गया? 1857 में अगर ये राज्य एकजुट होकर एक सुगठित जातीयता के रूप में अंग्रेजी ताकत से लड़े होते तो यह निश्चित लगता है कि 1857 के बाद के भारत का इतिहास कुछ और ही रूप में हमारे सामने आता।
दक्षिण भारतीय जातीयताएं स्वतंत्र राष्ट्र राज्यों के रूप में रहने को प्रवृत्त रहती दिखाई देती थीं। वर्ण व्यवस्था के लम्बे, निर्मम और बर्बर व्यवहार ने दलित जातियों में सम्पूर्ण समाज के प्रति भेदभाव और अत्याचार जन्य अलगाव का बोध था। सामंती राजाओं और नवाबों की पतनोन्मुख प्रवृत्तियों ने ब्रिटिश साम्राज्य को स्थापित होने के लिए अनुकूल स्थितियां बनाईं। जातीय संस्कृतियां शक्तिशाली राजनैतिक इकाई के रूप में अस्तित्वमान नहीं रह पाती तो दूसरी शक्तिशाली जातीयतायें आक्रामक साम्राज्यवादी व्यवहार करने का अवसर पा जाती हैं।
प्राचीन जन-समाज, जिनके अपने-अपने जनपद भी हुआ करते थे परस्पर युद्धरत भी होते थे और संघबद्ध भी होते थे। युद्ध भी और संघबद्धता भी दो या अधिक जनपदों के मध्य सांस्कृतिक अन्तःक्रिया की स्थिति उत्पन्न करते थे। लेकिन दोनों स्थितियों में मूलभूत अंतर होता था। युद्धजनित स्थिति में ‘विजेता’ जन समाज की, ‘पराजित’ जन समाज के युद्धबन्दियों के साथ अन्तःक्रिया होती थी। विजेता जन समाज द्वारा युद्धबंदी अपने में मिला तो लिए जाते थे, लेकिन विजेता जन समाज यहां प्रभुतापूर्ण प्रभावशाली स्थिति में होता था और पराजित युद्धबंदी लघुतापूर्ण उपकृत स्थिति में होते थे।
ये ‘जन समाज’ आदिम साम्यवादी समाज थे जिनमें किसी भी प्रकार के भेदभाव अभी उत्पन्न नहीं हुए थे। दूसरे जनपद के युद्धबन्दी थोड़े ही समय में घुलमिल जाते थे। इनके बीच सांस्कृतिक आदान-प्रदान भी होता था। युद्धबंदियों के पास अपने जनपद से लाया हुआ जो महत्वपूर्ण ज्ञान, कौशल और मूल्यगत-व्यवहारगत बातें होती थीं, उन्हें विजेता जनपद के लोगों द्वारा सहज रूप में ग्रहण कर लिया जाता था। पराजित युद्धबंदियों को तो विजेता जनपद की संस्कृति में ढलना ही होता था। जबकि जनपदों की संघबद्धता की स्थिति में संघबद्ध हुए जनपद लगभग समान स्तर पर होते थे और उनके बीच होने वाली अंतःक्रिया हर प्रकार के दबाव से मुक्त होती थी। दबाव मुक्त अवस्था में होने वाले इस मेल-जोल में उनकी संस्कृतियों का श्रेष्ठ ही पुष्पित-पल्लवित होता था और निकृष्ट या क्षीण और हीन मुरझाता जाता था। दोनों संस्कृतियां मिल कर एक नयी समृद्ध संस्कृति का निर्माण करती थीं। जब कई जनपद संघबद्ध होते थे तो बड़े और अधिक समृद्ध जनपद की नेतृत्वकारी स्थिति होती थी।
यह जनसंस्कृतियों का प्रारम्भिक पारस्परिक व्यवहार था, जो जनतांत्रिक प्रकार का भी था और साम्राज्यवादी प्रकार का भी। लेकिन साम्राज्यवादी प्रकार भी बाद के साम्राज्यवादी व्यवहारों जैसा वर्चस्ववादी नहीं था।
फ़्रेडरिक एंगेल्स इस विषय में अमरीका की आदिवासी जातियों के बारे में लिखते हुए बताते हैं कि - ‘‘जनसंख्या का घनत्व बढ़ने से यह आवश्यकता उत्पन्न हुई कि आंतरिक रूप से और बाहरी दुनिया के विरूद्ध संघबद्ध हुआ जाय। हर जगह सम्बन्धित जातियों का संघ आवश्यक हुआ और शीघ्र ही उनका परस्पर घुल-मिलकर एक होना भी आवश्यक हो गया। तब कबीलों के विभिन्न प्रदेश ‘जनपद’, जनता के एक ही विशाल प्रदेश ‘महाजनपद’ में घुलमिल कर एक हो गए।’’ साथ ही एंगेल्स यह भी बताते हैं कि - ‘‘प्राचीन जनों का एकीकरण समानता और भाईचारे के आधार पर सदा जनतांत्रिक ढंग से नहीं होता। शक्तिशाली जन दूसरों पर विजय प्राप्त करके भी यह एकीकरण की प्रक्रिया पूरी करते थे।’’
दरअसल, प्राचीन ‘जन-समाज’ कोई स्थिर जन समाज नहीं होते थे। प्राचीन कबीलाई ‘जन’ जो रक्तसम्बन्धों पर आधारित थे, वे रक्त सम्बन्धों पर आधारित होते हुए भी क्रमशः शुद्ध रक्त वाले नहीं रह गये थे। अजनबियों और युद्धबंदियों को सम्मिलित करने और दूसरे ‘जन-समाजों’ के साथ संघबद्ध होते रहने की प्रक्रिया में वे मिश्रित नस्लों वाले होते गये। इस दौरान दस्तकारी और कृषि के विकास के साथ-साथ व्यक्तिगत स्वामित्व और व्यक्तिगत सम्पत्ति का आविर्भाव भी होने लगा। कार्य विभाजन आवश्यक हो गया और वर्णव्यवस्था अस्तित्व में आई। आदिम साम्यवादी ‘जन-समाज’ सामंती समाज में बदलने लगे। जन समाजों का विघटन होने लगा और महाजनपदों का गठन हुआ।
यद्यपि प्राचीन जन समाजों का यह विघटन सर्वत्र न तो एक साथ हुआ और न ही पूर्णरूपेण हुआ। नए सामंती जन-पद, प्राचीन जन-समाजों के अनेक अवशेषों के साथ अस्तित्वमान हुए। बल्कि भारत की भौगोलिक राजनैतिक स्थितियों ने विकास के विभिन्न स्तरों के जन-समाजों को भी सामान्य विकासशील उथल-पुथल से दूर रहकर अस्तित्वमान रहने की सुविधा भी प्रदान की। इन नये जनपदों के निर्माण की प्रक्रिया को देखें तो पाते हैं कि वहां भी समर्थ-शक्तिशाली ‘जन’ और दूसरे ‘जनों’ के बीच साम्राज्यवादी व्यवहार भी था। यह सामंती साम्राज्यवादी व्यवहार था। यह प्रक्रिया उत्तर भारत में चंद्रगुप्त मौर्य से लेकर समुद्रगुप्त तक के साम्राज्यों के स्थापना काल में पूरी हो गई थी। डॉ. के.पी. जायसवाल ( हिन्दु पोलिटी, बंगलोर, 1943 ) के अनुसार ‘मौर्य साम्राज्यवाद’ और ‘हिन्दू यूनानी क्षत्रपों’ ने अधिकांश प्राचीन गणराज्यों यानी ‘जन-समाजों’ का विनाश किया।
यहां दो बातों पर ध्यान दिया जाना चाहिए। एक तो यह कि जब सामंती साम्राज्यवाद ने अपने समय में प्राचीन ‘जन-समाजों’ को नए सामंती साम्राज्य में एकीकृत किया तो सामंती साम्राज्यवादी संस्कृति ने प्राचीन जनपदों की संस्कृति के साथ कैसा व्यवहार किया और साथ ही यह भी देखना चाहिए कि पूंजीवादी साम्राज्यवाद आज विभिन्न राष्ट्रीय राज्यों की जातीय और जनपदीय संस्कृतियों से कैसा व्यवहार कर रहा है। इन दोनों साम्राज्यवादी व्यवहारों में क्या भेद हैं? ये भेद मात्रात्मक ही हैं या गुणात्मक भी। दूसरे यह कि जैसे प्राचीन गण समाजों के विघटन और महाजनपदों तथा लघुजातियों के निर्माण की प्रक्रिया पूरी नहीं हुई और सामंती साम्राज्यों के समय में भी ‘जन’ समाजों के न केवल अनेक अवशेष अस्तित्वमान रहे बल्कि अनेक जन जातियां भी अस्तित्वमान रहीं, वैसे ही आधुनिक समय में महाजनपदों और लघु जातीयताओं के एकीकरण और राष्ट्रीय जातीयताओं के निर्माण की प्रक्रिया भी यहां पूरी नहीं हुई। अनेक लघु जातीयताएं, जनपद और जन-जातियां अपने विशिष्ट स्वरूप को आज भी बनाए रखे हुए हैं।
हम आज भी अनेक अंचलों को जन-पद कहते हैं। यद्यपि अपनी जनपदीय अवस्था की अनेक विशिष्टताओं से युक्त होते हुए भी इन जनपदों ने महाजनपदों, लघु जातियों और जातीय तथा राष्ट्रीय बहुजातीय पुनर्गठनों की लम्बी राजनैतिक-सामाजिक और सांस्कृतिक यात्रा की है। ब्रज, बुंदेलखण्ड, मिथला, भोजपुर आदि ऐसे ही अंचल है। छत्तीसगढ़, झारखण्ड और राजस्थान एवं अन्य प्रदेशों में भी अनेक जनजातियां प्राचीन सांस्कृतिक-सामाजिक मूल्यों के साथ अब भी अस्तित्वमान है। इसी प्रकार विभिन्न राष्ट्रीय जातीयताएं संघबद्ध तो हुई हैं लेकिन एक आधुनिक बहुराष्ट्रीय जातीयता के रूप में घुल मिल जाने की प्रक्रिया अभी पूरी नहीं हुई है।
भारत में हिन्दी जातीय एकीकरण का काम अभी तक पूरा नहीं हुआ है। बल्कि उल्टी प्रक्रिया भी दिखाई देने लगती है। जनपदीय-आंचलिक भाषा-बोलियों की मान्यता और अलग राज्य के रूप में राजनैतिक इकाई के रूप में गठन की मांग के लिए जो आंदोलन दिखाई पड़ते हैं वे इस बात के द्योतक हैं कि जनपदों के जातीय सांस्कृतिक विकास में उल्लेखनीय अधूरापन रह गया है। वे रच-पच कर एकमेक नहीं हो पाए। साथ ही इस बात के द्योतक भी हैं कि आंचलिक और उपजातीय संस्कृतियां देश के भीतर से भी साम्राज्यवादी किस्म के राजनैतिक भेदभाव और सांस्कृतिक उपेक्षा महसूस कर रही हैं। वे इस बात के भी द्योतक हैं कि अब पूंजीवाद आधुनिक जातीयताओं के निर्माण की जनतांत्रिक प्रक्रिया को बल प्रदान करने के बजाय उनके विखण्डन की अवसरवादी राजनीति को प्रश्रय दे रहा है।
इन जनपदों में स्वतंत्र पहचान की प्रवृत्ति क्यों रही? क्या यह सच नहीं है कि उनकी अपनी भाषा साहित्य और संस्कृति एक समृद्ध जातीय इकाई के रूप में विकसित हुई, और जनपदीय सांस्कृतिक इकाई के बजाय वे जातीय इकाई की तरह व्यवहार करती रहीं?
भारतीय बहुराष्ट्रीय राज्य की संरचना की विशिष्टताओं को भली-भांति समझा जाना चाहिए। तमिल जातीयता का गठन 1310 ई. से पहले ही हो गया था। 1669 में शिवाजी ने मराठा राज्य स्थापित किया। कार्ल माक्र्स ने ‘नोट्स आन इण्डियन हिस्ट्री’ में कहा ‘‘इस प्रकार मराठे एक जाति बने जिन पर स्वतंत्र राजा राज्य करता था।’’ दक्षिण की अन्य जातीयताओं और बंगाली जातीयताओं के गठन की प्रक्रिया भी काफी पहले पूरी हो गई लेकिन कुछ अन्य एवं हिन्दी भाषा-भाषी प्रदेशों के बीच जातीयता के निर्माण की प्रक्रिया अभी भी अधूरी है। जबकि सामंती साम्राज्यवाद के काल में ही लघु जातीयताओं के सम्मिलन और बड़े प्रदेशों के गठन की प्रक्रिया पूरी हो जानी चाहिए थी। जबकि उत्तर भारत की लघु जातीयताओं वाले जनपदों में ऐसी अनेक आधारभूत समानताएं हैं कि उनका महाप्रदेश के रूप में संगठित होना स्वाभाविक था। मुगल शासन के अंतर्गत यह प्रक्रिया प्रारम्भ हुई। लगभग पूरा उत्तर भारत एक हुकूमत के अधीन रहा। वैसे तुर्कों के समय में भी उत्तर भारत काफी केन्द्रबद्ध हो गया था। यह इतिहास की जरूरत थी। एक केन्द्रीकृत राज्यसत्ता इस क्षेत्र के विकास की अनिवार्यता थी। डॉ. रामविलास शर्मा ‘‘भाषा और समाज’’ में उल्लेख करते हैं कि - ‘‘राजपूत सामंतों की यह बुनियादी कमजोरी थी कि वे न तो राजस्थान को एक सुकेन्द्रित शासन व्यवस्था में ला सके न समूचे उत्तर भारत ( या हिन्दी भाषी प्रदेश ) का एक राज्य कायम कर सके। राजस्थान या हिन्दी भाषी प्रदेश में वे एक संयुक्त जातीय राज्य कायम नहीं कर सके।’’
जबकि यह उनका ऐतिहासिक दायित्व था। इस दायित्व को विदेशी हमलावर राजनैतिक शक्तियों ने पूरा किया। संभवतः इस अनिवार्यता के लिए बनी रिक्तता ने ही उन्हें यह अवसर दिया। ‘‘जागीरदारों और सामंतों के स्वतंत्र राज्यों का अलगाव खत्म किये बिना व्यापार की उन्नति और उसका प्रचार सम्भव नहीं था।’’ ( डॉ. रामविलास शर्मा ) महाजनी पूंजीवाद की विकासशीलता के लिए सुकेन्द्रित राज्य व्यवस्था आवश्यक थी।
फिर यह सवाल उठता है कि बावजूद मुगलों के नेतृत्व में संकेन्द्रित राज्य व्यवस्था के हिन्दी महाजातीयता का गठन पूर्णता को क्यों नहीं प्राप्त कर सका? ब्रिटिश साम्राज्य के आविर्भाव और मुगल सत्ता के कमजोर होते ही वह लघुजातीयताओं वाले पुराने सामंती राज्यों में क्यों बंट गया? 1857 में अगर ये राज्य एकजुट होकर एक सुगठित जातीयता के रूप में अंग्रेजी ताकत से लड़े होते तो यह निश्चित लगता है कि 1857 के बाद के भारत का इतिहास कुछ और ही रूप में हमारे सामने आता।
दक्षिण भारतीय जातीयताएं स्वतंत्र राष्ट्र राज्यों के रूप में रहने को प्रवृत्त रहती दिखाई देती थीं। वर्ण व्यवस्था के लम्बे, निर्मम और बर्बर व्यवहार ने दलित जातियों में सम्पूर्ण समाज के प्रति भेदभाव और अत्याचार जन्य अलगाव का बोध था। सामंती राजाओं और नवाबों की पतनोन्मुख प्रवृत्तियों ने ब्रिटिश साम्राज्य को स्थापित होने के लिए अनुकूल स्थितियां बनाईं। जातीय संस्कृतियां शक्तिशाली राजनैतिक इकाई के रूप में अस्तित्वमान नहीं रह पाती तो दूसरी शक्तिशाली जातीयतायें आक्रामक साम्राज्यवादी व्यवहार करने का अवसर पा जाती हैं।
( अगली बार – लगातार – दूसरा भाग )
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आलेख – शिवराम
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