सोमवार, 26 सितंबर 2011

जनसंस्कृतियाँ और साम्राज्यवादी संस्कृति – दूसरा भाग

जनसंस्कृतियाँ और साम्राज्यवादी संस्कृति – दूसरा भाग
शिवराम
 
( शिवराम का भारतीय समाज के संदर्भों में जनसंस्कृतियों की विकास-अवस्थाओं और साम्राज्यवादी अपसंस्कृतिकरण पर लिखा गया यह महत्त्वपूर्ण आलेख इसकी लंबाई को देखते हुए यहां चार भागों में प्रस्तुत किया जा रहा है. प्रस्तुत है दूसरा भाग. )
 
देखिए : जनसंस्कृतियाँ और साम्राज्यवादी संस्कृति : पहला भाग

अब जब दुनिया अमेरिकन साम्राज्यवाद के आर्थिक-राजनैतिक और सांस्कृतिक हमले की चपेट में है और भारत भी इस हमले का शिकार है, हमें समझना चाहिए कि भारत एकताबद्ध राष्ट्र राज्य के रूप में ही पूंजीवादी साम्राज्यवाद के वर्तमान हमले का मुकाबला कर सकता है। शासक वर्ग इस एकता के प्रति बेहद लापरवाह है। भाषावार राज्यों का गठन हुआ और राष्ट्रीय राज्य में गणसंघीय स्वरूप को संवैधानिक मान्यता भी दी गई लेकिन विभिन्न जातीयताओं और भाषाओं के साथ भेदभाव रहित न्याय नहीं किया गया। शासक वर्ग अपने राजनैतिक नियंत्रण और आर्थिक लाभ के अनुरूप भेदभावपूर्ण नीतियां अपनाता रहा।

सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के नाम पर साम्प्रदायिक फासीवाद ने धार्मिक आधार पर सामाजिक अलगाव को चिन्ताजनक स्थिति में पहुंचा दिया है। राज्य सरकारों को विदेशी साम्राज्यवादी सरकारों और साम्राज्यवादी बहुराष्ट्रीय कम्पनियों से सीधे समझौते करने और अंतर्राष्ट्रीय साम्राज्यवादी वित्तीय संस्थाओं से सीधे ऋण लेने की छूट सुकेन्द्रित राष्ट्र राज्य को कमजोर ही नहीं करता, साम्राज्यवाद को हमारे जातीय अंतविरोधों को बढ़ाने का अवसर भी प्रदान करता है। भारतीय शासक पूंजीपति वर्ग, साम्राज्यवाद के साथ गठजोड़ बनाए हुए है और वह उसे आगे बढ़ा रहा है। विभिन्न जातीयताओं के साथ भेदभाव और उनकी सांस्कृतिक पहचान तथा विकास की चिन्ताओं को गम्भीरता से नहीं लिया जा रहा है। विभिन्न राज्यों के असमान विकास की स्थितियां भी विभिन्न जातीयताओं के बीच वैमनस्यपूर्ण अंतर्विरोधों को बढ़ा रहे हैं। ये स्थितियां हमें साम्राज्यवादी सांस्कृतिक आक्रमण के समक्ष कमजोर स्थिति में खड़े किए हुए हैं।

जनपदीय संस्कृतियां, जातीय संस्कृतियां और जनजाति संस्कृतियां और समग्र रूप में देश की बहुराष्ट्रीय जातीय संस्कृति, सभी साम्राज्यवादी सांस्कृतिक आक्रमण से क्षतिग्रस्त हो रही हैं, वे विकृत की जा रही हैं। उनका अपसंस्कृतिकरण किया जा रहा है। भाषाई साम्राज्यवाद फैल रहा है। लेकिन साम्राज्यवादी सांस्कृतिक हमले के विरूद्ध, बहुराष्ट्रीय भारत की विभिन्न राष्ट्रीय जातीयताएं, जनपद और जनजातियां एकताबद्ध प्रतिरोध, प्रतिकार, संगठित नहीं कर पा रही हैं। वे साम्राज्यवादी सांस्कृतिक आक्रमण के बरअक्स अपनी सांस्कृतिक नीति सुनिश्चित नहीं कर पा रही हैं। आर्थिक राजनैतिक क्षेत्र में भी साम्राज्यवादी घुसपैठ और आक्रमण का स्थानीय प्रतिरोध और प्रतिकार तो प्रत्यक्ष होता हैं लेकिन वे व्यापक रूप धारण नहीं कर पाते भारतीय बहुराष्ट्रीय राज्य की केन्द्रीय और राज्य सरकारें इन प्रतिरोधों-प्रतिकारों में साम्राज्यवाद विरोधी जन पक्षधर भूमिका निभाने के बजाय प्रतिरोधी जनता का दमन करती दिखाई देती है। हिन्दू उग्रवादी मानसिकता पश्चिमी संस्कृति का जिस तरह का विरोध संगठित करती है वह अपने मूल चरित्र में गैर-जनतांत्रिक एवं फासीवादी होता है। वे साम्राज्यवादी अपसंस्कृति से नहीं लड़ रहे होते हैं, बल्कि हिन्दुत्ववादी सामंती संस्कृति की रक्षा हेतु सामंती लठैतों की तरह व्यवहार कर रहे होते हैं।

भारतीय समाज की सामाजिक संरचना मुख्यतया सामंती है। वह जनतांत्रिक आधुनिक समाज में विकसित नहीं हो सका। जिसे आधुनिक समाज कहा जाता है वह पश्चिमी संस्कृति की नकल जरूर करता है। रहन-सहन के आधुनिक ढंग तो उसने सीख लिए हैं, ऊपरी आचरण की सभ्यता भी सीख ली है, लेकिन उसकी चित्तवृत्ति सामंती ही बनी हुई है। औरों की तो बात छोडि़ए हमारे साम्यवादी भी सामंती अहं, व्यक्तिवाद और प्रभुतावादी प्रवृत्तियों से मुक्त नहीं हो पाए हैं। विचारों से साम्यवादी और व्यवहार में सामंती प्रवृत्ति साम्यवादी आंदोलन की एक बड़ी समस्या के रूप में आज भी बनी हुई है। गैर साम्यवादियों की तो बात ही छोडि़ए। विकसित पूंजीवादी देशों में जो आधुनिक संस्कृति अस्तित्व में आयी वह उनके शासकों के साम्राज्यवादी व्यवहार ने विकृत कर  दी हैं, भोगवादी, उपभोक्तावादी, वर्चस्ववादी और कुंठित।

जनपदीय संस्कृति, सामंती संस्कृति ही होती है। सवाल उनकी सामंती संस्कृति को बचाने का नहीं है, उनकी संस्कृति के श्रेष्ठ की रक्षा करते हुए उसे आधुनिक जनतांत्रिक संस्कृति में विकसित करने का है। आधुनिकता का अभिप्राय पश्चिम की नकल नहीं होता, तर्कसंगत वैज्ञानिक दृष्टिकोण होता है। रूढि़यों-अंधविश्वासों-निरर्थक धार्मिक कर्मकाण्डों से मुक्ति होता है। समानता-स्वतंत्रता और भाई-चारे के मूल्यों से युक्त जीवन दर्शन को ग्रहण करना होता है। लिंग भेद, वर्ण भेद, जाति भेद, क्षेत्रियता भेद और वर्ग भेद विरोधी समानता की पक्षधर चेतना होता है। जनतांत्रिक व्यवहार होता है। ज्ञानात्मक संवेदना और संवेदनात्मक ज्ञान होता है।

ब्रिटिश साम्राज्वाद के दौर में हम पश्चिम के आधुनिक चिन्तन के सम्पर्क में तो आए, विभिन्न प्रकार के सामाजिक सुधारवादी आंदोलन भी हुए। लेकिन भारतीय समाज का सामंती ढांचे में और खासकर सामंती संस्कृति में अत्यल्प मात्रात्मक परिवर्तन ही सम्भव हो पाया।

भारतीय समाज के आधुनिकीकरण की प्रक्रिया जो ब्रिटिश साम्राज्यवाद से आज़ादी के बाद तेजी से बढ़नी थी, वह नहीं बढ़ी। शासक वर्गों ने सामंतवाद और भूस्वामी वर्ग से गठजोड़ किया। भारतीय पूंजीवाद तब अस्तित्व में आया जबकि पूंजीवाद, वैश्विक स्तर पर अपनी पतनशील साम्राज्यवादी अवस्था में प्रवेश कर गया। दुनिया को वह दो बार व्यापक और लम्बे विश्वयुद्धों की तबाही दे चुका। वह फासीवाद का तोहफा लिए अश्वमेघ यज्ञ के घोड़े दौड़ाने लगा। उसकी अपनी प्रगतिशील भूमिका समाप्त हो गई और वह पतनशील भूमिकाओं के साथ पूरी तीव्रता के साथ सक्रिय हो गया। चूंकि दुनिया में उसका समाजवादी विकल्प विचारधारात्मक स्तर पर ही नहीं जमीनी स्तर पर भी जड़ें जमाकर सारी दुनिया के जन-गणों के बीच लोकप्रियता अर्जित करने लगा, इसलिए अपनी मृत्यु को प्रत्यक्ष देखकर वह बर्बरता की तरफ बढ़ने लगा।

भारतीय पूंजीवादी शासक वर्ग भी अपनी सत्ता के छिनने और मेहनतकश जनता के सच्चे जनतंत्र की स्थापना के भय से अपनी प्रगतिशील भूमिका को छोड़कर सामंतों, राजे-रजवाड़ों और प्रतिक्रियावादी शक्तियों के साथ खड़ा हो गया। राजा-महाराजाओं और प्रतिक्रियावादी शक्तियों के पुरातनपंथी विचारों, धार्मिक अंधविश्वासों और ग्राम्य जीवन के स्तर पर सामंती व्यवस्था को बनाए रखने के लिए जातिवादी चेतना को पुष्ट किया। जाति और धर्म की सामंती सामाजिक-सांस्कृतिक संस्थाओं को बल प्रदान किया। किसानों और मजदूरों का दमन किया। हैदराबाद निजाम के पक्ष में तेलंगाना के किसान आंदोलन को कुचलना, केरल की जनतांत्रिक ढंग से निर्वाचित साम्यवादी सरकार को भंग करना, देश भर में जगह-जगह मजदूर आंदोलनों पर पुलिस की गोलियां चलना, इसके प्रमुख उदाहरण हैं।

पूंजीवादी विकास ने श्रमजीवी जन-गण की झोली में कोई उल्लेखनीय लाभ नहीं डाले। दलितों पर अत्याचार और वर्ण-भेद का व्यवहार, महिलाओं पर अत्याचार और लिंग-भेद का व्यवहार, आदिवासियों का विस्थापन और उनका उत्पीड़न निरंतर जारी ही नहीं रहा, बढ़ता गया। औद्योगिक आवश्यकताओं के लिए जो शिक्षा व्यवस्था खड़ी की गई उसने एक मध्य वर्ग जरूर बनाया। आरक्षण ने दलितों के बीच भी एक मध्य वर्ग बनाया और कुछ आदिवासी जन भी शिक्षा और आधुनिक ज्ञान के नजदीक आए। यह मध्य वर्ग भी भारतीय समाज को आधुनिक सांस्कृतिक वातावरण निर्मित करने के बजाय खुद भी सामंती संस्कृति को ही जीता रहा। पूंजीवादी-सामंती राजसत्ता में हिस्सेदारी और अपना अभिजनीकरण ही उनका लक्ष्य बनकर रह गया। जबकि इस मध्यवर्ग की ऐतिहासिक जिम्मेदारी बहुत बड़ी है, उन्हें श्रमजीवी जन-जन के इन अस्सी प्रतिशत लोगों को पूंजीवाद-सामंतवाद से मुक्ति के क्रांतिकारी पथ पर आगे बढ़ाना था।

विभिन्न भारतीय जातीयताएं, केन्द्रीय शासक वर्ग के अविश्सनीय, पक्षपातपूर्ण, चालबाज और गैर जनतांत्रिक, व्यवहार के कारण अपनी जातीय स्वायत्तता और विकास तथा सांस्कृतिक पहचान की रक्षा के लिए सन्नद्ध होने लगीं। हिन्दु तत्ववादियों ने हिन्दी, हिन्दू, हिन्दुस्तान जैसे नारों के साथ हिन्दी जाति के प्रभुताशील व्यवहार का डर फैलाया। फलस्वरूप राज-काज और अन्तरप्रान्तीय सम्पर्क की भाषा के रूप में अंग्रेजी न केवल जारी रही बल्कि दक्षिण भारतीय जातीयताओं ने उसे ही बनाए रखने का दबाव भी जारी रखा। यह स्थिति भारत में वर्तमान साम्राज्यवादी सांस्कृतिक आक्रमण के लिए काफी सहायक सिद्ध हुई। बल्कि उसने अंग्रेजीदां प्रभुत्वशाली लोगों के माध्यम से अपनी राह को बेहद आसान बना लिया।

भाषा सिर्फ अभिव्यक्ति का माध्यम नहीं होती वह संस्कृति का माध्यम भी होती है। पश्चिमी संस्कृति के पतनशील तत्व और व्यवहार, उसके माध्यम से भारतीय संस्कृति पर सहज ही आरूढ़ होते रहे। पश्चिमी साम्राज्यवादी शासकों को भारतीय शासक वर्ग को अपनी पतनशील संस्कृति में ढालने का काम आसान हो गया। भारत में एक ऐसा अंग्रेजी भाषी समाज अस्तित्वमान हो गया जिसके हाथ में राज्यसत्ता के तमाम सूत्र हैं और जो पश्चिमी संस्कृति के अंधानुकरण में लिप्त है। यह तबका भारत में साम्राज्यवादी संस्कृति का वाहक बना हुआ है। उसे पश्चिम की घटिया, निकृष्ट और सड़ांधयुक्त चीजें भी उच्च कोटि की नजर आती हैं और भारतीय संस्कृति का श्रेष्ठ भी हीन और त्याज्य नजर आता है।

हमें इस वास्तविकता को भी समझना चाहिए कि जनपदीय संस्कृतियां जब एक-जातीय संस्कृति में समाहित होने की प्रक्रिया से गुजर रही होती है तो उनमें से एक संस्कृति प्रमुख रूप धारण कर लेती है और अन्य संस्कृतियां उसमें समाहित होने लगती हैं। हिन्दी जातीयता के निर्माण की प्रक्रिया पूरी नहीं होने के पीछे विभिन्न जनपदों की संस्कृति की अपनी समृद्ध अवस्था और किसी दूसरी संस्कृति के वर्चस्व के प्रति उनकी सजग सक्रियता भी एक मुख्य कारण रही दिखाई देती है। अन्य सांस्कृतिक तत्व तो उनके मध्य परस्पर अपनाये जाते दिखते हैं, लेकिन भाषा के स्तर पर वे हिन्दी के वर्चस्ववाद और अपनी विशिष्ट सांस्कृतिक इकाई की पहचान के प्रति काफी सजग और चिन्तित दिखाई देते हैं। विभिन्न जनपदीय भाषायें संविधान की आठवीं सूची में शामिल होना चाहती हैं। अतः आंचलिक बोलियों और जनपदीय भाषाओं के संरक्षण की आश्वस्ति आवश्यक हो गई है।

हिन्दी जातीयता एक बहुजनपदीय संघबद्ध जातीयता के रूप में विकसित हुई है और उसका यही स्वरूप स्वाभाविक प्रतीत होता है। सामंती साम्राज्यवादी समय में उसके तमिल, मराठी, बंगाली, मलयाली, तेलगू जातियताओं की तरह एकमेक जातियता का रूप ग्रण करने के अवसर ज्यादा थे। अब उनके बीच संघबद्धता ही जनतांत्रिक व्यवहार के अनुकूल है।

दूसरी तरफ वैश्वीकरण की स्थितियां रोजगार के लिए अंग्रेजी भाषा को अनिवार्य बनाती जा रही है। इसलिए सभी जनपदों और जातीयताओं में ठेठ ‘प्रेप लेवल’ से ही अंग्रेजी माध्यम के स्कूल शिक्षा का मुख्य आधार बनते जा रहे हैं। अंग्रेजी भाषा में व्यवहार हेतु भी अनेक प्रकार के कोचिंग इंस्टीट्यूट और इंगलिश स्पीकिंग कोर्स चल रहे हैं। हिन्दी जातीयता के जनपद और दूसरी जातीयतायें हिन्दी के मुकाबिल अपनी स्वतंत्र पहचान के प्रति तो भारी सजगता दिखाते दिखते हैं, लेकिन अंग्रेजी के वर्चस्व को उत्साहपूर्वक स्वीकार किया जा रहा है। इस स्थिति में हिन्दी का वर्चस्ववादी व्यवहार, अंग्रेजी के साम्राज्यवादी वर्चस्ववाद को स्वीकार बनाने में परोक्ष सहायक दिखाई देता है।

( अगली बार – लगातार – तीसरा भाग )
०००००
आलेख – शिवराम

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें