शिवराम स्मृति समारोह
"हमारा समय और सांस्कृतिक चुनौतियां" पर परिचर्चा
"हमारे पुरोधा : शिवराम" का लोकार्पण
० कोटा, २ अक्टूबर. २०१४
विकल्प जन सांस्कृतिक मंच, कोटा
"हमारा समय और सांस्कृतिक चुनौतियां" पर परिचर्चा
"हमारे पुरोधा : शिवराम" का लोकार्पण
० कोटा, २ अक्टूबर. २०१४
सुप्रसिद्ध
रंगकर्मी एवं साहित्यकार शिवराम के चतुर्थ स्मृति-दिवस पर विकल्प जन
सांस्कृतिक मंच, कोटा द्वारा गत १ अक्टूबर, २०१४ को एम. डी. मिशन कॉलेज के
सभागार में एक समारोह का आयोजन किया गया। "हमारा समय और सांस्कृतिक
चुनौतियां" विषय पर एक सार्थक परिचर्चा और राजस्थान साहित्य अकादमी द्वारा
प्रकाशित एवं महेन्द्र नेह द्वारा लिखित पुस्तक "हमारे पुरोधा : शिवराम"
का लोकार्पण इस समारोह के मुख्य आकर्षण रहे। इस अवसर पर रवि कुमार द्वारा
शिवराम की रचनाओं पर केंद्रित एक कविता पोस्टर श्रृंखला का प्रदर्शन भी
किया गया।
कार्यक्रम के मुख्य अतिथि वरिष्ठ साहित्यकार प्रो० मोहन श्रोत्रिय ने परिचर्चा का समाहार करते हुए कहा कि हमारा देश-समाज इस समय गहरे सांस्कृतिक संकट से गुजर रहा है। संस्कृति और धर्म का घालमेल किया जा रहा है, धर्म को संस्कृति की तरह प्रस्तुत किया जा रहा है। जबकि संस्कृति कहीं अधिक व्यापक संकल्पना है जिसका कि धर्म एक संकीर्ण अवयव मात्र है। हमारी विविधता से भरी समावेशी संस्कृति निशाने पर है और इस पर कट्टरवादी सामंती धार्मिक प्रभुत्व का संकट हमारे समय की सबसे बड़ी सांस्कृतिक चुनौती है। इस संकट के लिए मात्र कुछ संगठनों और मीडिया को कोसने से काम नहीं चलेगा, बल्कि संकट की जड़ो को तलाशना होगा। उन्होंने विस्तार से अपनी बात रखते हुए कहा कि वर्तमान बाज़ारवादी संस्कृति के साथ धार्मिक उन्माद पैदा करने वाली पतित संस्कृति का ताना-बाना बुनकर देशवासियों को विकास के दुस्वप्न दिखाये जा रहे हैं। इसके पीछे देश के शासक-वर्ग हैं, जो साम्राज्यवादी आर्थिक-राजनैतिक ताकतों के साथ दुरभि संधि करके देश के संसाधनों की अंधी लूट के लिए सांस्कृतिक विभ्रमों की सृष्टि कर रहे हैं। हमें फासीवाद की आहटों को सुनना, पहचानना सीखना-सिखाना होगा और उनके खिलाफ़ एक व्यापक राजनैतिक और संस्कृतिकर्म की लामबंदी करनी होगी। कलाकर्म को व्यक्तिगतता के दायरे से बाहर निकालना होगा, क्योंकि हर व्यक्तिगत कर्म अंततः राजनैतिक होता ही है, पर्सनल इज़ पॉलिटिकल। कला जगत को वर्तमान राजनीति के प्रतिकार की राजनीति में उतरना होगा, यही हम कला और संस्कृतिकर्मियों के लिए हमारे समय की चुनौतियों के खिलाफ़ एक सक्रिय और सचेत प्रतिरोध की राह हो सकती है।
वरिष्ठ शायर और विकल्प के अध्यक्ष अखिलेश अंजुम के स्वागत वक्तव्य के बाद परिचर्चा की शुरुआत करते हुए रंगकर्मी संदीप राय ने कहा कि शिवराम ने वर्तमान शोषक-शासक व्यवस्था के जन-विरोधी चरित्र को बेनकाब करने तथा उसके विरुद्ध प्रतिरोध जगाने के लिए सर्वाधिक प्रभावी माध्यम के रूप में नुक्कड़ नाटक को चुना। उनके नाटकों में आज के समय के संकटों की स्पष्ट अभिव्यक्ति देखी जा सकती है। उन्होंने सत्तापोषित मीडिया के मुक़ाबले जन-मीडिया की आवश्यकता पर जोर दिया। साथी नारायण शर्मा ने कहा कि हमें वैचारिक प्रखरता एवं श्रमिकों-किसानों के बीच संस्कृति कर्म द्वारा नव जागरण की धार को विकसित करना होगा। व्यंग्यकार डॉ. अतुल चतुर्वेदी ने कहा कि साहित्य और संस्कृति के लिए स्थापित जनसंचार माध्यमों में जगह लगातार कम हो रही है और वर्तमान समय की सांस्कृतिक चुनौतियों के पीछे नई तकनीक और हाई फाई ब्रेन योजनाबद्ध ढंग से काम कर रहे हैं। उन्होंने कहा कि देश के युवाओं को प्रगतिशील और जनपक्षधर संस्कृति के मूल्यों से परिचित कराना समय की मांग है।
साथी बी.एम. शर्मा ने अपने संबोधन में कहा कि शिवराम ने अपने विचारों तथा संस्कृतिकर्म से एक वैकल्पिक रास्ता दिखाया था और हमें इसे और आगे बढ़ाना चाहिये। महेन्द्र नेह ने कहा कि शासक-वर्ग की की संस्कृति मरणशील संस्कृति है, साम्राज्यवाद का आर्थिक-जहाज डूब रहा है। पूंजी और सत्ता का फासीवादी गठजोड़ इस बात की स्पष्ट अभिव्यक्ति है कि आर्थिक संकट अब लाइलाज होता जा रहा है। हमें मीडिया के दुष्प्रचार से हताश न होकर जन-गण के बीच शासक-वर्ग के झूठ-फरेब के विरुद्ध न्याय व सचाई की अलख जगानी चाहिये। कार्यक्रम का संचालन करते हुए मशहूर शायर शकूर अनवर ने शिवराम के संस्कृतिकर्म को धर्म जाति, संप्रदाय की सीमाओं को तोड़कर एक न्यायपरक व समतामूलक समाज के सपने जगानेवाला प्रेरणादायक संस्कृतिकर्म बताया।
कार्यक्रम के मुख्य अतिथि वरिष्ठ साहित्यकार प्रो० मोहन श्रोत्रिय ने परिचर्चा का समाहार करते हुए कहा कि हमारा देश-समाज इस समय गहरे सांस्कृतिक संकट से गुजर रहा है। संस्कृति और धर्म का घालमेल किया जा रहा है, धर्म को संस्कृति की तरह प्रस्तुत किया जा रहा है। जबकि संस्कृति कहीं अधिक व्यापक संकल्पना है जिसका कि धर्म एक संकीर्ण अवयव मात्र है। हमारी विविधता से भरी समावेशी संस्कृति निशाने पर है और इस पर कट्टरवादी सामंती धार्मिक प्रभुत्व का संकट हमारे समय की सबसे बड़ी सांस्कृतिक चुनौती है। इस संकट के लिए मात्र कुछ संगठनों और मीडिया को कोसने से काम नहीं चलेगा, बल्कि संकट की जड़ो को तलाशना होगा। उन्होंने विस्तार से अपनी बात रखते हुए कहा कि वर्तमान बाज़ारवादी संस्कृति के साथ धार्मिक उन्माद पैदा करने वाली पतित संस्कृति का ताना-बाना बुनकर देशवासियों को विकास के दुस्वप्न दिखाये जा रहे हैं। इसके पीछे देश के शासक-वर्ग हैं, जो साम्राज्यवादी आर्थिक-राजनैतिक ताकतों के साथ दुरभि संधि करके देश के संसाधनों की अंधी लूट के लिए सांस्कृतिक विभ्रमों की सृष्टि कर रहे हैं। हमें फासीवाद की आहटों को सुनना, पहचानना सीखना-सिखाना होगा और उनके खिलाफ़ एक व्यापक राजनैतिक और संस्कृतिकर्म की लामबंदी करनी होगी। कलाकर्म को व्यक्तिगतता के दायरे से बाहर निकालना होगा, क्योंकि हर व्यक्तिगत कर्म अंततः राजनैतिक होता ही है, पर्सनल इज़ पॉलिटिकल। कला जगत को वर्तमान राजनीति के प्रतिकार की राजनीति में उतरना होगा, यही हम कला और संस्कृतिकर्मियों के लिए हमारे समय की चुनौतियों के खिलाफ़ एक सक्रिय और सचेत प्रतिरोध की राह हो सकती है।
वरिष्ठ शायर और विकल्प के अध्यक्ष अखिलेश अंजुम के स्वागत वक्तव्य के बाद परिचर्चा की शुरुआत करते हुए रंगकर्मी संदीप राय ने कहा कि शिवराम ने वर्तमान शोषक-शासक व्यवस्था के जन-विरोधी चरित्र को बेनकाब करने तथा उसके विरुद्ध प्रतिरोध जगाने के लिए सर्वाधिक प्रभावी माध्यम के रूप में नुक्कड़ नाटक को चुना। उनके नाटकों में आज के समय के संकटों की स्पष्ट अभिव्यक्ति देखी जा सकती है। उन्होंने सत्तापोषित मीडिया के मुक़ाबले जन-मीडिया की आवश्यकता पर जोर दिया। साथी नारायण शर्मा ने कहा कि हमें वैचारिक प्रखरता एवं श्रमिकों-किसानों के बीच संस्कृति कर्म द्वारा नव जागरण की धार को विकसित करना होगा। व्यंग्यकार डॉ. अतुल चतुर्वेदी ने कहा कि साहित्य और संस्कृति के लिए स्थापित जनसंचार माध्यमों में जगह लगातार कम हो रही है और वर्तमान समय की सांस्कृतिक चुनौतियों के पीछे नई तकनीक और हाई फाई ब्रेन योजनाबद्ध ढंग से काम कर रहे हैं। उन्होंने कहा कि देश के युवाओं को प्रगतिशील और जनपक्षधर संस्कृति के मूल्यों से परिचित कराना समय की मांग है।
साथी बी.एम. शर्मा ने अपने संबोधन में कहा कि शिवराम ने अपने विचारों तथा संस्कृतिकर्म से एक वैकल्पिक रास्ता दिखाया था और हमें इसे और आगे बढ़ाना चाहिये। महेन्द्र नेह ने कहा कि शासक-वर्ग की की संस्कृति मरणशील संस्कृति है, साम्राज्यवाद का आर्थिक-जहाज डूब रहा है। पूंजी और सत्ता का फासीवादी गठजोड़ इस बात की स्पष्ट अभिव्यक्ति है कि आर्थिक संकट अब लाइलाज होता जा रहा है। हमें मीडिया के दुष्प्रचार से हताश न होकर जन-गण के बीच शासक-वर्ग के झूठ-फरेब के विरुद्ध न्याय व सचाई की अलख जगानी चाहिये। कार्यक्रम का संचालन करते हुए मशहूर शायर शकूर अनवर ने शिवराम के संस्कृतिकर्म को धर्म जाति, संप्रदाय की सीमाओं को तोड़कर एक न्यायपरक व समतामूलक समाज के सपने जगानेवाला प्रेरणादायक संस्कृतिकर्म बताया।
‘हमारे पुरोधा :
शिवराम’ पुस्तक पर अपने विचार रखते हुए कवि-समीक्षक हितेश व्यास ने कहा कि
शिवराम ने अपने नाटकों के जरिये जनता की सोई हुई चेतना को जगाने का काम
किया और उनकी कविताओं में भी लोक नाट्य और जन चेतना की प्रखर कलात्मकता है
जो जीवन के यथार्थ से उपजी है। डा. प्रेम जैन ने पुस्तक-परिचय के रूप में
अपनी लिखित टिप्पणी में कहा कि महेन्द्र नेह ने इस पुस्तक के ज़रिये शिवराम
के जीवन, कविताओं, नाटकों व गद्य से न केवल हमें परिचित कराया है, अपितु
उनके लेखन में गुंथी हुई युगपरिवर्तनकामी ऊर्जा को भी पाठकों तक पहुंचाने
का कार्य किया है। डॉ. ओम नागर ने कहा कि शिवराम के नाटकों का हाड़ौती भाषा
में अनुवाद करते समय उन्होंने अनुभव किया कि शिवराम में जन मनोविज्ञान और
लोक मुहावरों को चित्रित करने की अपूर्व क्षमता थी, और यही कारण था कि
उनके नाटक जनता से सीधे संवाद करते थे, उनकी चेतना में प्रत्यक्ष
हस्तक्षेप करते थे।
समारोह की अध्यक्षता करते हुए ख्यात कवि अंबिकादत्त ने कहा कि परिवर्तनकामी चेतना को अपने साहित्य व नाटकों के जरिये व्यापक जन तक ले जाने वाले शिवराम जैसे रचनाकार विरल ही होते हैं। उनके सानिध्य की ऊर्जा अभी तक हमें इस तरह आंदोलित करती है कि लगता ही नहीं कि वे अब हमारे बीच में नहीं है। वरिष्ठ रचनाकार निर्मल पाण्डेय ने शिवराम को जीता-जागता जन-मीडिया और समय के आगे चलने वाले संस्कृतिकर्मी बताया। विशिष्ट अतिथि डॉ. नरेन्द्र नाथ चतुर्वेदी ने संस्कृति और साहित्य के संबंधों को व्याख्यायित करते हुए शिवराम के योगदान को रेखांकित किया। अध्यक्ष मंडल के सदस्य दिनेश राय द्विवेदी ने अपने उद्बोधन में कहा कि शिवराम के जीवन और रचनाकर्म में कोई विलगाव नहीं था। वे जैसा देखते और विश्लेषित करते थे, वैसा लिखते थे और जैसा लिखते थे वैसा ही अपने जीवन में उतारते और सक्रिय रहा करते थे। समय के द्वंद्वों और अंतर्विरोधों को समझने और उन्हें अपनी रचनाओं में सहजता से ढ़ालने की क्षमता उनके अंदर गहरे से पैबस्त थी। उन्होंने अपने नाटकों व कविताओं से जनता को प्रतिरोध की संस्कृति से संस्कारित करने, भयमुक्त होने तथा विद्रोह की ओर आगे बढ़ने की राह प्रशस्त की।
अंत में धन्यवाद ज्ञापन करते हुए विकल्प के महासचिव महेन्द्र नेह ने सभी अतिथियों और भागीदारों का आभार व्यक्त किया। समारोह में कोटा शहर के साहित्य-कला-संस्कृति कर्मियों और प्रेमियों के साथ-साथ शिवराम के परिवारजनों ने भी सक्रिय भागीदारी की।
समारोह की अध्यक्षता करते हुए ख्यात कवि अंबिकादत्त ने कहा कि परिवर्तनकामी चेतना को अपने साहित्य व नाटकों के जरिये व्यापक जन तक ले जाने वाले शिवराम जैसे रचनाकार विरल ही होते हैं। उनके सानिध्य की ऊर्जा अभी तक हमें इस तरह आंदोलित करती है कि लगता ही नहीं कि वे अब हमारे बीच में नहीं है। वरिष्ठ रचनाकार निर्मल पाण्डेय ने शिवराम को जीता-जागता जन-मीडिया और समय के आगे चलने वाले संस्कृतिकर्मी बताया। विशिष्ट अतिथि डॉ. नरेन्द्र नाथ चतुर्वेदी ने संस्कृति और साहित्य के संबंधों को व्याख्यायित करते हुए शिवराम के योगदान को रेखांकित किया। अध्यक्ष मंडल के सदस्य दिनेश राय द्विवेदी ने अपने उद्बोधन में कहा कि शिवराम के जीवन और रचनाकर्म में कोई विलगाव नहीं था। वे जैसा देखते और विश्लेषित करते थे, वैसा लिखते थे और जैसा लिखते थे वैसा ही अपने जीवन में उतारते और सक्रिय रहा करते थे। समय के द्वंद्वों और अंतर्विरोधों को समझने और उन्हें अपनी रचनाओं में सहजता से ढ़ालने की क्षमता उनके अंदर गहरे से पैबस्त थी। उन्होंने अपने नाटकों व कविताओं से जनता को प्रतिरोध की संस्कृति से संस्कारित करने, भयमुक्त होने तथा विद्रोह की ओर आगे बढ़ने की राह प्रशस्त की।
अंत में धन्यवाद ज्ञापन करते हुए विकल्प के महासचिव महेन्द्र नेह ने सभी अतिथियों और भागीदारों का आभार व्यक्त किया। समारोह में कोटा शहर के साहित्य-कला-संस्कृति कर्मियों और प्रेमियों के साथ-साथ शिवराम के परिवारजनों ने भी सक्रिय भागीदारी की।
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