बुधवार, 5 अक्तूबर 2011

जनसंस्कृतियाँ और साम्राज्यवादी संस्कृति – अंतिम भाग

जनसंस्कृतियाँ और साम्राज्यवादी संस्कृति – अंतिम भाग
शिवराम

( शिवराम का भारतीय समाज के संदर्भों में जनसंस्कृतियों की विकास-अवस्थाओं और साम्राज्यवादी अपसंस्कृतिकरण पर लिखा गया यह महत्त्वपूर्ण आलेख इसकी लंबाई को देखते हुए यहां चार भागों में प्रस्तुत किया जा रहा है. प्रस्तुत है अंतिम भाग. )

देखिए : जनसंस्कृतियाँ और साम्राज्यवादी संस्कृति :
पहला भाग, दूसरा भाग, तीसरा भाग

उच्च स्तरीय वैश्विक संस्कृति का निर्माण दुनिया के समाजवादी वैश्वीकरण के भविष्य की कोख में पल रहा है। और उसके लिए जरूरी है कि विभिन्न मानव सभ्यताओं द्वारा अर्जित सांस्कृतिक श्रेष्ठ की, ज्ञान-विज्ञान के श्रेष्ठ की, इतिहास की हिफाजत की जाए। वही उच्च कोटि की मानवीय समाजवादी वैश्विक संस्कृति का आधार बनेंगे। हजारों फूलों के बीजों को बचाया जाए ताकि भविष्य के बगीचे में हजारों फूल अपने रंगों और रूपों की छटा बिखेरते हुए साथ-साथ महकें-दमकें। समाजवादी निर्माण के प्रयत्नों में मिली पराजय और विफलताएं घोर निराशा का कारण नहीं होनी चाहिएं। दुनिया की राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक व्यवस्थाओं में आमूल-चूल परिवर्तन, एक शोषण विहीन संस्कृति का निर्माण, एक नये समाजवादी जनतांत्रिक मनुष्य का निर्माण जो हर प्रकार के व्यक्तिवाद से मुक्त हो, एक झटके में ही सम्भव नहीं हो जाएगा। असफलताओं और पराजयों की श्रृंखला को पार करके ही निर्णायक सफलताएं और विजय हासिल होती हैं।

विचारधारा और दर्शन के क्षेत्र में वह एक ओर तो ‘विचारधारा के अंत’ की घोषणा करता है दूसरी ओर ‘उत्तर आधुनिकतावाद’ और ‘सभ्यताओं के संघर्ष’ की विचारधारा लेकर आता है। वह मार्क्सवाद को भी वि्कृत करता है। वह वैश्वीकरण-उदारीकरण- निजीकरण और एक ध्रुवीय दुनिया की विचारधारा लेकर आता है। वह साम्राज्यवाद की विकल्पहीनता ‘देयर इज नो आल्टरनेटिव’ लेकर आता है। वह सामाजिक अनुशासनों को ध्वस्त करने और समाज विरोधी व्यक्तिवादी स्वच्छंदता का विचार लेकर आता है। वह निष्कर्ष विहीन अनन्त विमर्श की विचारधारा लेकर आता है। कुल मिलाकर वह विचारधारा के क्षेत्र में संभ्रमों और विभ्रमों की दुनिया रचता है। विचार शून्यता और चिन्तनहीनता की स्थिति पैदा करता है। वास्तविकता को भ्रम और भ्रम को वास्तविक बनाकर पेश करने की विचारधारा लेकर आता है। वह ‘इतिहास के अंत’ की घोषणा करता है और ‘फुनगियों की ओर बढ़ने’ का नहीं ‘जड़ों की ओर लौटने’ का आह्नान करता है। अतीतोन्मुखता को जगाता है, अज्ञान, अंधविश्वास और धर्म के पाखण्ड में आस्था जगाता है। उसकी समस्त विचारधाराएं, सभी दर्शन, दुनिया की हजारों साल में अर्जित संस्कृति के श्रेष्ठ को विकृत करने की जंग छेड़े हुए है।

वह धर्मों और नस्लों के बीच विग्रह, विघटन, दंगे और युद्ध छेड़ने के षड़यंत्र रचता है। सभ्यताओं के संघर्ष का हटिंगटन का दर्शन विभिन्न संस्कृतियों को परस्पर युद्धरत करने का विध्वंसक दर्शन है। वह मानव अधिकारों की बात करता है लेकिन मानवता के विरूद्ध पतन की सभी सीमाओं को लांघ जाता है। वह मानव अंगों के अमानवीय अपहरण और व्यापार तक ही सीमित नहीं रहता, नर मांस भक्षण, नर शिशु मांस भक्षण और नर भ्रूण मांस भक्षण के स्वादों के भोग तक जाता है। मनुष्य के उत्कृष्ट सौन्दर्यबोध को ध्वस्त कर, निकृष्ट भोग बोध जगाता है। मूल्यविहीन संवेदनहीन भोगवादी मानसिकता ही उसके लिए उपभोक्ता समाज का निर्माण करेगी। साम्राज्यवादी संस्कृति, संस्कृति का नहीं विकृतियों का संसार रच रही है। कलाओं की दुनिया में वह अनुभव, विचार, मूल्य, संवेदना और ज्ञान को विस्थापित करने को प्रवृत्त होती है। वह तकनीक, सूचना, शिल्प-कौशल, भाषाई चमत्कार, अर्थहीनता, कोरी काल्पनिकता और निरर्थक अमूर्तन की दिशा में प्रवृत्त करती है। सामाजिक यथार्थ और ज्ञानात्मक संवेदना तथा संवेदनात्मक ज्ञान को हतोत्साहित, उपहासित और तिरस्कृत करती है।

साम्राज्यवादी संस्कृति, साहित्य और कलाकर्म को व्यापारिक और बाजारवादी दृष्टिकोण से युक्त करती है। बाजार यानी तिकड़म, विज्ञापन कौशल, लाभ- हानि का गणित। रूपवाद और कलावाद तो पहले भी थे, अब वह ऐसे रूपवाद को पोषित करती है जो घटिया वस्तु तत्व के भी बढि़या होने का भ्रम पैदा करे। रचना-रूप से भी ज्यादा महत्वपूर्ण अब पैकिंग और प्रस्तुति का रूप है। पैकिंग का सौन्दर्य, पैकिंग का शिल्प, पैकिंग का रूप विधान। इस सबके ऊपर माल खपाने और लाभ कमाने का कौशल। ज्ञान, साहित्य और कलाओं को लोक से, जन साधारण से विलग करती है।

साम्राज्यवादी संस्कृति कलाकर्मियों को सम्पादकों-प्रकाशकों को टैकल करने की कला सिखाती है। पुरस्कार प्रदाताओं और सम्मानदाताओं से सम्मान प्राप्त करने, खरीदने के गुर सिखाती है। कला कर्म का उद्देश्य धनार्जन और यशार्जन है, यह सिखाती है। सामाजिक दायित्व बोध मूर्खता है,  उसका उपहास-तिरस्कार करती है।

यह गौर करने योग्य बात है कि आजकल दूरदर्शन चैनलों पर अधिकतर मुख्य कार्यक्रम उबाऊ, निरर्थक और फालतू लगते हैं, कलाहीन और सौन्दर्यविहीन, लेकिन ‘एड’ यानी विज्ञापन कितने कलात्मक आ रहे हैं। सारी कलाएं, क्या अभिनय, क्या संगीत, सब विज्ञापन के लिए समर्पित। विज्ञापन जो झूठ की चित्ताकर्षक प्रस्तुति होती है। स्त्री देह के उत्तेजक उभार, उसकी नग्नता, तक ही बात नहीं है। विकसित और साम्राज्यवादी जगत में पोर्न, ब्लू फिल्में आम हो गई हैं। इंगलैंड की एक सर्वे रिपोर्ट है कि वहां 98 प्रतिशत महिलाएं पोर्न और ब्लू फिल्में देखती हैं ( पुरुषों की तो बात छोडि़ए ), चौंकाने वाली ही नहीं डराने वाली भी है। यह है साम्राज्यवादी संस्कृति और उसकी महानता, जिसके नशें में हमारा अभिजन समाज डूबा जा रहा है।

शिक्षा संस्कृति का मुख्य आधार है। हम ब्रिटिश साम्राज्यवाद की शिक्षा नीति से खूब परिचित हैं कैसे उस शिक्षा पद्धति ने हमारे समाज की मानसिकता को उपनिवेशीकृत किया। सामंती युग में हमने देखा उनकी शिक्षा पद्धति ने कैसे लोगों में सामंती शोषण और वर्णव्यवस्था के दिल दहलाने वाले अत्याचारों को सहने के अनुकूल मानसिकता बनाई गई। आज भी पिछले जन्मों के कर्मफल में उसका विश्वास टूटा नहीं है। वह सामंती-पूंजीवादी शोषण-उत्पीड़न को ईश्वर का विधान और पिछले जन्म के कर्मों का फल मानकर और अगले जन्म को सुखी बनाने के लिए सहता रहता है। उसकी इस विकट सहनशीलता को देखकर कठोर हृदयी मनुष्य की भी संवेदना जाग जाती है, उसकी करूणा द्रवित हो उठती है। वह उनके पक्ष में सोचने लगता है। लेकिन शोषित-पीडि़त जन सहर्ष सब सहे जा रहे हैं। भाग्य का विधान ही ऐसा है। साम्राज्यवादी संस्कृति भी ऐसी शिक्षा पद्धति का प्रसार करती है।

हैरी कैली, दि मॉडर्न स्कूल इन रिट्रास्पेक्ट ( 1925 ) में कहते हैं - ‘‘सार्वजनिक विद्यालय प्रणाली व वर्तमान सामाजिक व्यवस्था को स्थायी बनाने के लिए एक शक्तिशाली उपकरण है...बच्चे को शिक्षा दी जाती है ताकि वह सत्ता के नीचे झुके, दूसरों की इच्छा के अनुसार काम करने की आदत डाले, फलतः उसके मन की कुछ ऐसी आदतें बन जाती हैं, जिनका उसके वयस्क जीवन में शासक वर्ग पूरा लाभ उठाता है।’’ मार्टिन कारनाय की पुस्तक ‘‘सांस्कृतिक साम्राज्यवाद और शिक्षा’’ ( अनुवादक कृष्णकांत मिश्र ) इस दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण है। मार्टिन कारनाय कहते है कि - ‘‘पश्चिमी तर्ज की औपचारिक शिक्षा अधिकांश देशों में मुक्ति का साधन न बन कर केवल साम्राज्यवादी प्रभुत्व का उपकरण बनी। यह शिक्षा साम्राज्यवाद के लक्ष्यों के अनुरूप थी....’’, वे आगे कहते हैं - ‘‘हमारा विश्वास है कि ज्ञान का भी उपनिवेशीकरण किया गया। उपनिवेशीकृत ज्ञान समाज के सोपानात्मक ढांचे को स्थाई बनाता है।’’

सुसांत गुणतिलक की पुस्तक ‘‘पंगु मस्तिष्क - शिक्षा पर औपनिवेशिक संस्कृति का दबाव’’ ( अनुवाद - स्वयं प्रकाश ) इस विषय पर एक और महत्वपूर्ण शोधपूर्ण पुस्तक है। सुसांत गुणतिलक पुस्तक की भूमिका में कहते है - ‘‘आम तौर पर व्यापारिक, औद्योगिक और मौजूदा नव औपनिवेशक रूपों में प्रकट होने वाले विभिन्न आर्थिक हमलों के माध्यम से पिछले पांच सौ वर्षों के यूरोपीय विस्तार ने प्रायः सारी दुनिया को सांस्कृतिक स्तर पर लगभग पूरी तरह आच्छादित कर लिया है। इस सांस्कृतिक एकछत्रता ने स्थानीय संस्कृति, स्थानीय कलाओं तथा वैध और प्रासंगिक विज्ञानों की स्थानीय प्रणालियों का दमन किया है और इसका परिणाम एक वास्तविक सांस्कृतिक आनुवंशिक सफाए के रूप में सामने आया है। यूरोपीय संस्कृति का आधिपत्य बढ़ने के साथ ही विविधता और मौलिकता, कलाएं और गैर यूरोपीय मूल के विचार गायब हैं। संस्कृति आवेष्टित हो रही है और सुगम्य रूपों में परोसी जा रही है।’’ वे इस पुस्तक में ‘सांस्कृतिक एकछत्रता की छानबीन’ करते हैं। ‘औपनिवेशिक विश्व की स्थापना से पहले यूरोप के बाहर की सांस्कृतिक दुनिया की छानबीन’ करते हैं। ‘औपनिवेशिक संस्कृति के वाहक के रूप में प्रविधि की भूमिका की शिनाख्त करते हैं और ‘सांस्कृतिक स्तर पर उपनिवेशीकृत राष्ट्रों के कपट प्रबंध’ की पहचान कराते हैं।

वर्तमान में औद्योगिक प्रबंधन और उच्च सूचना तकनीक की शिक्षा का अभियान अपने लिए उपयोगी कार्मिकों की भीड़ खड़ी करने का एक ऐसा ही अभियान है। वे अलगाव, असंलग्नता, तटस्थता और सहनशीलता सिखाती है। मनुष्य के स्व-विवेक और स्व-निर्णय की प्रवृत्ति को समाप्त करती है। उसे विचारहीन संस्कृतिविहीन बनाती है। साम्राज्यवादी संस्कृति हमारे बुद्धिजीवियों, संस्कृतिकर्मियों और सामाजिक कार्यकर्ताओं का उपनिवेशीकरण करती है।

सवाल सिर्फ यही नहीं है कि हमारी संस्कृति को हम साम्राज्यवादी संस्कृति द्वारा किए जा रहे ध्वंस से कैसे बचाएं? सवाल यह भी है कि हम हमारी संस्कृति को साम्राज्यवादी संस्कृति बनाये जाने और उसे दूसरी नस्लों या जातीयताओं की संस्कृति को नष्ट करने के उपकरण बनाए जाने से भी कैसे बचाएं?

मानव समाज, कबीलाई जन संस्कृतियों से शुरु होकर जनपदीय, जातीय और बहुराष्ट्रीय जातीय अवस्थाओं से गुजरता हुआ अब वैश्विक संस्कृति की ओर अग्रसर है। यह मानव समाज, विकास की स्वाभाविक प्रक्रिया है, इसे रोका नहीं जा सकता। देखना यह है कि साम्राज्यवादी वर्चस्व के अंतर्गत वैश्विक संस्कृति और विश्व समाज अथवा समाजवादी-जनवादी वैश्विक संस्कृति और वैश्विक समाज।

साम्राज्यवादी पूंजीवाद राष्ट्र राज्यों, जातीय संस्कृतियों और विभिन्न भाषाओं को कुचलता हुआ एक ऐसी दुनिया का निर्माण करने में लगा है जिसकी संस्कृति शोषण-उत्पीड़न-विस्थापन पर आधारित एक गैर जनतांत्रिक, अमानवीय, अपसंस्कृति होगी। भोगवाद और वर्चस्ववाद जिसकी मुख्य प्रवृत्ति होंगी। वित्तीय पूंजी के वर्चस्व तले एक गुलाम दुनिया। अनिश्चय और असुरक्षा के आतंक के साये में जीती तनावग्रस्त सभ्यताएं। हिंसा-नशा-भोग, संवेदनहीनता-असहिष्णुता-अलगाव। युद्ध और आतंक। साम्राज्यवादी वैश्वीकरण एक उच्च विकासशील वैश्विक संस्कृति की ओर अग्रसर नहीं है बल्कि एक पतनशील और संकीर्ण वैश्विक अपसंस्कृति की ओर अग्रसर है।

एक स्वस्थ समृद्ध उन्नतशील उच्च मानवीय वैश्विक संस्कृति वैश्विक समाजवादी व्यवस्था के अंतर्गत स्वरूप ग्रहण करेगी। एक शोषण विहीन समतावादी वैश्विक व्यवस्था में ही यह सम्भव होगा।

विविध संस्कृतियों को विस्थापित और विखण्डित कर वर्चस्ववादी एकरूपता स्थापित करती हुई वैश्विक संस्कृति नहीं, बल्कि ऐसी वैश्विक संस्कृति जो विविध संस्कृतियों का संघबद्ध समाजवादी जनवादी गुलदस्ता हो, होना चाहिए।
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( समाप्त )
 
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jansanskrutiyan aur samrajyavadi sanskruti– shivaram.pdf

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आलेख – शिवराम

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